धड़ धड़ाता जीवन

आजकल मेरा पूरा दिन किसी तेज़ रेलगाड़ी की तरह धड़ धड़ाता हुआ आता है और गुज़र जाता है ,अब मेरे जीवन का स्वाद मुझे पता है , मै उसे रोज़ एक ही तरह से चखता हूँ , कहने और करने को कितना कुछ है लेकिन सब , थोड़ा – थोड़ा ,इधर - उधर बिखरा पड़ा है और मेरे पास अब उसे समेटने कि हिम्मत नहीं है , आजकल मै एक ही तरह से उठता हूँ और उसी तरह से दोबारा सो जाता हूँ, मै एक औसत मध्यवर्गिय जिवन बिता रहा हूँ जिसे जीने कि कल्पना मैने कभी नहीं कि थी , मै अपने ही खाते से पैसे चुराता हूँ जो मैने खुद कमाये थे , मै आगे भागता रहता हूँ और पिछे का रिक्त छूटता रहता है , ये बचा हुआ रिक्त , घटते हुए समय के साथ घटता नहीं बढ़ता है

अब जीवन एक उदास लड़की जैसा हो गया है जो समंदर किनारे असहाय बैठी है

जिसे मैने पढ़ना चाहा, पढ़ न पाया

लिखना चाहा, लिख ना पाया

जीना चाहा , जी ना पाया

 

 

 

 


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